मृत्यु है द्वार रूपांतरण का
एकनाथ के पास एक व्यक्ति आता था। सत्संग को। कई बार आया, कई बार गया। एकनाथ ने एक दिन उससे पूछा कि मुझे ऐसा लगता है तू कुछ पूछना चाहता है, पूछ नहीं पाता। कोई लाज, कोई लज्जा, कोई संकोच तुझे रोक लेता है। आज तू पूछ ही ले। आज और कोई है भी नहीं, सुबह-सुबह तू जल्दी ही आ गया है।
उस व्यक्ति ने कहा, आपने पहचाना तो ठीक, पूछना तो मैं चाहता हूं। एक छोटी सी बात, और संकोचवश नहीं पूछता हूं। वह बात यह है कि आप भी मनुष्य जैसे मनुष्य हैं, हमारे ही जैसे हड्डी-मांस-मज्जा के बने हैं, आपके जीवन में कभी पद की, प्रतिष्ठा की कामना नहीं उठती? आपके जीवन में कभी लोभ की, क्रोध की अग्नि नहीं भड़कती? आपके जीवन में कभी काम की, माया की वासनाएं नहीं उठतीं? यही पूछना है। आप इतने पवित्र मालूम होते हो, इतने निर्दोष; जैसे सुबह-सुबह खिला हुआ फूल ताजा होता है, ऐसे आप ताजे लगते हो; जैसे सुबह-सुबह सूरज की किरणों में चमकती ओस, ऐसे आप निर्दोष लगते हो; इसलिए पूछते डरता हूं, मगर यह भी संकोच तोड़ना ही पड़ेगा, पूछना ही पड़ेगा, बिना पूछे मैं न रह सकूंगा, मेरी नींद हराम हो गई है। यह प्रश्न मेरे मन में गूंजता ही रहता है। यह भी शंका उठती है, संदेह उठता है कि हो सकता है यह सब निर्दोषता ऊपर-ऊपर हो और भीतर वही सब कूड़ा-करकट भरा हो जो मेरे भीतर भरा है।
एकनाथ ने उसकी बात सब सुनी और कहा कि प्रश्न तेरा सार्थक है। लेकिन इसके पहले कि मैं उत्तर दूं, एक और जरूरी बात बतानी है। कहीं ऐसा न हो कि उत्तर देने में वह जरूरी बात बताना भूल जाऊं। तू जब बात कर रहा था तो तेरे हाथ पर मेरी नजर गई, देखा तेरी उम्र की रेखा समाप्त हो गई है। सात दिन के भीतर तू मर जाएगा। अब तू पूछ।
वह आदमी उठ कर खड़ा हो गया। उसके पैर डगमगा गए। उसकी छाती धड़क गई। श्वासें रुक गई होंगी। एक क्षण को हृदय ने धड़कन बंद कर दी होगी। उसने कहा: मुझे कुछ पूछना नहीं, मुझे घर जाना है। एकनाथ ने कहा: अभी नहीं मरना है, सात दिन जिंदा रहना है, अभी बहुत देर है, सात दिन में घर पहुंच जाएगा, अपने प्रश्न को पूछा, उसका उत्तर तो ले जा! उसने कहा, भाड़ में जाए प्रश्न और भाड़ में जाए उत्तर। मुझे न प्रश्न से मतलब है, न उत्तर से, तुम्हारी तुम जानो, मैं चला घर! जवान आदमी था। अभी जब मंदिर की सीढ़ियां चढ़ रहा था तो उसके पैरों में बल था, अब जब लौट रहा था तो दीवाल का सहारा लेकर उतरा। हाथ-पैर कंप रहे थे, आंखें धुंधली हो रही थीं। सात दिन! एकनाथ की बात पर संदेह भी नहीं किया जा सकता। यह आदमी कभी झूठ बोला नहीं। आज क्यों बोलेगा? बार-बार हाथ देखता था। भागा घर की तरफ। रास्ते में कौन मिला, किसने जयराम जी की, किसने नहीं की, कुछ समझ आया नहीं। धुआं-धुआं छाया था। सात दिन बाद मौत हो तो आही गई मौत। सात दिन में देर कितनी लगेगी! ये दिन आए और ये दिन गए!
घर पहुंच कर बिस्तर से लग गया। पत्नी-बच्चों ने पूछा: हुआ क्या? थोड़ी-बहुत देर छिपाया, फिर छिपा भी नहीं सका..ये बातें छिपाई जा सकतीं नहीं। बताना ही पड़ा। रोना-धोना शुरू हो गया। घर में चूल्हा न जला। सात दिन में उस आदमी की हालत ऐसी खराब हो गई कि हड्डी-हड्डी हो गया। आंखें धंस गयीं। और बार-बार एक ही बात पूछता था, कितना समय और बचा?
आखिरी दिन सूरज ढलने के समय एकनाथ द्वार पर आकर खड़े हुए। सारे परिवार के लोग उनके चरणों में गिर पड़े, रोने लगे। एकनाथ ने कहा: मत रोओ, जरा मुझे भीतर आने दो। वह आदमी तो जैसे एकनाथ को पहचाना ही नहीं। जिंदगी भर से सत्संग करता था, मगर इस मौत ने सब अस्त-व्यस्त कर दिया। एकनाथ ने कहा, पहचाने कि नहीं? मैं हूं एकनाथ।
उस आदमी ने आंखें खोलीं और कहा: हां, कुछ-कुछ याद आती है। आप कैसे आए, किसलिए आए? एकनाथ ने कहा: यह पूछने आया हूं, सात दिन में पाप का कोई विचार उठा? काम-क्रोध, लोभ-मोह, सात दिन में कोई लपटें उठीं?
उस आदमी ने कहा, आप भी क्या मजाक करते हैं! मौत सामने खड़ी हो तो जगह कहां कि काम उठे, लोभ उठे, क्रोध उठे, मोह उठे? जिनसे झगड़ा था उनसे माफी मांग ली। जिन पर मुकदमे चला रहा था, उनसे क्षमा मांग ली। अब क्या शत्रुता! जब मौत ही आ गई, तो किससे शत्रुभाव! सात दिन में ख्याल ही नहीं आया कि पैसा जोड़ना है। सात दिन में वासना तो जगी ही नहीं। काम तो तिरोहित हो गया। ऐसा अंधकार छाया था चारों तरफ, मौत ऐसी भयभीत कर रही थी कि आप भी क्या सवाल पूछते हैं! यह कोई सवाल है!
एकनाथ ने कहा: उठ, अभी तुझे मरना नहीं है। वह तो मैंने तेरे सवाल का जवाब दिया था। ऐसी ही मुझे मौत दिखाई देती है..निश्चित, सुनिश्चित। सात दिन बाद नहीं तो सत्तर वर्ष बाद सही। पर सात दिन में, सत्तर वर्ष में फर्क क्या है? सात दिन गुजर जाएंगे, सत्तर वर्ष भी गुजर जाते हैं। तेरी मौत अभी आई नहीं। यह मैंने तेरे प्रश्न का उत्तर दिया। अब तू उठ!
लेकिन उस दिन से उस आदमी के जीवन में क्रांति हो गई। मौत तो नहीं आई, लेकिन एक आर्थ में वह आदमी मर गया, और एक अर्थ में नया जन्म हो गया। इस नये जन्म का नाम ही धर्म है। इस नये जन्म को मैं संन्यास कहता हूं।
सब कुछ वही था, बाहर वही रहेगा..यही पौधे होंगे, यही लोग होंगे, यही बाजार होगा, यही दुकान होगी, यही मकान होंगे, लेकिन भीतर कुछ क्रांति हो जाएगी, रूपांतरण हो जाएगा। और उस क्रांति का मूल आधार मृत्यु है।
जो बुद्धिहीन हैं, वे मृत्यु को देखते नहीं। आंख मूंदे रखते हैं। पीठ किए रहते हैं। जीवन के सबसे बड़े सत्य के प्रति पीठ किए रहते हैं। सुनिश्चित जो है, उसको झुठलाए रहते हैं। अपने मन को समझाए रहते हैं कि हमेशा कोई और मरता है, मैं नहीं मरूंगा; मेरी कहां मौत, अभी कहां मौत! अभी तो बहुत समय पड़ा है। अभी तो मैं जवान हूं। अपने को भुलाए रखते हैं, मरते-मरते दम तक भी भुलाए रखते हैं। जो बिस्तर पर पड़े हैं अस्पतालों में, मरने की घड़ियां गिन रहे हैं, वे भी अभी इस आशा में हैं कि बच जाएंगे। अभी उनकी कामनाओं का अंत नहीं, वासनाओं का अंत नहीं। अभी भी हिसाब-किताब बिठा रहे हैं कि अगर बच गए तो क्या करेंगे।
ओशो