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Monday, August 1, 2022

Natraj strotram- Powerful hymn by Sage Patanjali

NATRAJ STOTRAM 


नटराज स्त्रोतम्

The strot that is beginningless and endless.


15 years Back when first time I listened this strotram from the voice of Prof. Thiagarjan, i can't forget that moment. It was nearly 3.00 AM Night time, my whole body was trembling, like kundalini awakening, i can feel the energy and light in my each cells of body. I was in deep meditative state for one hour. I can feel the dance of shiva in each cells of my body and in the whole universe. Sharing today the amazing strotram by Sage Patanjali who is master of all types of Yoga.


One who recites this hymn, quickly reaches the highest goal and does not steep into the ocean of worldly existence which causes great sorrow and sinfulness.


One who learns it by heart and recites it will find a seat in the assembly of Shiva. 


This hymn is by Sage Patanjali, the author and compiler of the famous yogasuutra. Once upon a time, as the story of the origin of the hymn goes, Nandi, Shiva's carrier would not allow Patanjali Muni to have Darshan of the Lord Shiva (Nataraja of Chidambaram). In order to reach Lord Shiva, Patanjali, with his mastery over grammatical forms, spontaneously composed this prayer in praise of the Lord without using any extended (`diirgham') syllable, (without `charaNa' and `shringa' i.e. leg and horn) to tease Nandi. 


Shiva was quickly pleased, gave Darshan to the devotee, and danced to the lilting tune of this song. The place where this incidence is said to have happened is Chidambaram (also known as Thillai), located about a hundred miles from Madras, Tamilnadu, India. It is considered to be one of the holiest places in India. In this temple, Lord Nataraja is present in a cosmic-dancing form. 


For pronounciation check on YouTube audio by Prof Thiagarjan.


श्री नटराज स्त्रोतम


सदञ्चित मुदञ्चित निकुञ्चितपदं झलझलं चलितमञ्जुकटकं

पतञ्जलि दृगञ्जनमनञ्जनमचञ्चलपदं जननभञ्जनकरम् ।

कदम्बरुचिमम्बरवसं परममम्बुदकदम्बक विडम्बक गलं

चिदम्बुधिमणिं बुधहृदम्बुजरविं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ १ ॥


हरं त्रिपुरभञ्जनमनन्तकृतकङ्कणमखण्डदयमन्तरहितं

विरिञ्चिसुरसंहतिपुरन्धर विचिन्तितपदं तरुणचन्द्रमकुटम् ।

परं पद विखण्डितयमं भसितमण्डिततनुं मदनवञ्चनपरं

चिरन्तनममुं प्रणवसञ्चितनिधिं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ २ ॥


अवन्तमखिलं जगदभङ्ग गुणतुङ्गममतं धृतविधुं सुरसरि-

-त्तरङ्ग निकुरुम्ब धृति लम्पट जटं शमनदम्भसुहरं भवहरम् ।

शिवं दशदिगन्तरविजृम्भितकरं करलसन्मृगशिशुं पशुपतिं

हरं शशिधनञ्जयपतङ्गनयनं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ ३ ॥


अनन्तनवरत्नविलसत्कटककिङ्किणि झलं झलझलं झलरवं

मुकुन्दविधिहस्तगतमद्दल लयध्वनि धिमिद्धिमित नर्तनपदम् ।

शकुन्तरथ बर्हिरथ नन्दिमुख दन्तिमुख भृङ्गिरिटिसङ्घनिकटं [भयहरम्]

सनन्दसनकप्रमुखवन्दितपदं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ ४ ॥


अनन्तमहसं त्रिदशवन्द्यचरणं मुनिहृदन्तर वसन्तममलं

कबन्ध वियदिन्द्ववनि गन्धवह वह्नि मखबन्धु रवि मञ्जुवपुषम् ।

अनन्तविभवं त्रिजगदन्तरमणिं त्रिनयनं त्रिपुरखण्डनपरं

सनन्दमुनिवन्दितपदं सकरुणं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ ५ ॥


अचिन्त्यमलिबृन्दरुचिबन्धुरगलं कुरित कुन्द निकुरुम्ब धवलं

मुकुन्द सुरबृन्द बलहन्तृ कृतवन्दन लसन्तमहिकुण्डलधरम् ।

अकम्पमनुकम्पितरतिं सुजनमङ्गलनिधिं गजहरं पशुपतिं

धनञ्जयनुतं प्रणतरञ्जनपरं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ ६ ॥


परं सुरवरं पुरहरं पशुपतिं जनित दन्तिमुख षण्मुखममुं

मृडं कनकपिङ्गलजटं सनकपङ्कजरविं सुमनसं हिमरुचिम् ।

असङ्घमनसं जलधि जन्मगरलं कबलयन्तमतुलं गुणनिधिं

सनन्दवरदं शमितमिन्दुवदनं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ ७ 


अजं क्षितिरथं भुजगपुङ्गवगुणं कनकशृङ्गिधनुषं करलस-

-त्कुरङ्ग पृथुटङ्कपरशुं रुचिर कुङ्कुमरुचिं डमरुकं च दधतम् ।

मुकुन्द विशिखं नमदवन्ध्यफलदं निगमबृन्दतुरगं निरुपमं

सचण्डिकममुं झटितिसंहृतपुरं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ ८ ॥


अनङ्गपरिपन्थिनमजं क्षितिधुरन्धरमलं करुणयन्तमखिलं

ज्वलन्तमनलन्दधतमन्तकरिपुं सततमिन्द्रसुरवन्दितपदम् ।

उदञ्चदरविन्दकुलबन्धुशतबिम्बरुचि संहति सुगन्धि वपुषं

पतञ्जलिनुतं प्रणवपञ्जरशुकं परचिदम्बरनटं हृदि भज ॥ ९ ॥


इति स्तवममुं भुजगपुङ्गव कृतं प्रतिदिनं पठति यः कृतमुखः

सदः प्रभुपदद्वितयदर्शनपदं सुललितं चरणशृङ्गरहितम् ।

सरः प्रभव सम्भव हरित्पति हरिप्रमुख दिव्यनुत शङ्करपदं

स गच्छति परं न तु जनुर्जलनिधिं परमदुःखजनकं दुरितदम् ॥ १० ॥


इति श्रीपतञ्जलिमुनि प्रणीतं चरणशृङ्गरहित नटराज स्तवम् ॥


Vivek

Infinite love

Infinite wisdom 


Wednesday, May 26, 2021

Heart Sutra - prajnaparamita

Today is the divine day of Buddha Purnima. 



Penetrate the true meaning of the Heart Sutra, and nothing will be the same again. The secret is to read it again and again and meditate on the wisdom. This is one of my favorite sutra, when I read, I become empty.


The Heart Sutra


Avalokiteshvara, the Bodhisattva of Compassion, meditating deeply on Perfection of Wisdom, saw clearly that the five aspects of human existence are empty,  and so released himself from suffering.  Answering the monk Sariputra, he said this:


Body is nothing more than emptiness,

emptiness is nothing more than body.

The body is exactly empty,

and emptiness is exactly body.

The other four aspects of human existence --

feeling, thought, will, and consciousness --

are likewise nothing more than emptiness,

and emptiness nothing more than they.


All things are empty:

Nothing is born, nothing dies,

nothing is pure, nothing is stained,

nothing increases and nothing decreases.


So, in emptiness, there is no body,

no feeling, no thought,

no will, no consciousness.

There are no eyes, no ears,

no nose, no tongue,

no body, no mind.

There is no seeing, no hearing,

no smelling, no tasting,

no touching, no imagining.

There is nothing seen, nor heard,

nor smelled, nor tasted,

nor touched, nor imagined.


There is no ignorance,

and no end to ignorance.

There is no old age and death,

and no end to old age and death.

There is no suffering, no cause of suffering,

no end to suffering, no path to follow.

There is no attainment of wisdom,

and no wisdom to attain.


The Bodhisattvas rely on the Perfection of Wisdom,

and so with no delusions,

they feel no fear,

and have Nirvana here and now.


All the Buddhas,

past, present, and future,

rely on the Perfection of Wisdom,

and live in full enlightenment.


The Perfection of Wisdom is the greatest mantra.

It is the clearest mantra,

the highest mantra,

the mantra that removes all suffering.


This is truth that cannot be doubted.

Say it so:


Gaté,

gaté,

paragaté,

parasamgaté.

Bodhi!

Svaha!


Which means...

Gone,

gone,

gone over,

gone fully over.

Awakened!

So be it!


Hear then the great dharani,

the radiant peerless mantra, 

the prajnaparamita

whose words allay all pain; 

hear and believe its truth!


gate gate paragate parasamgate 

bodhi svaha


Chant this mantra with your heart, as much as you can. Buddha in me greets the Buddha in you.


Vivek

Infinite love

Infinite wisdom

Tuesday, May 25, 2021

Narsingh mantra to remove all kind of obstacles


आज नृसिंह जयंती मनाई जा रही है. ये जयंती वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाई जाती है।


भगवान नृसिंह की कहानी में ही हमारे मोक्ष का मार्ग छिपा है। प्रह्लाद जैसी सरल हमारी आत्मा है, बिल्कुल बच्चे जैसी निःस्पृह। हिरण्यकश्यपु हमारा अहंकार है, आत्मा जब अहंकार रूपी शरीर में बंधती है तो वो माया का पाश है फँसी होती है।


हिरण्यकश्यपु को वरदान था ना वो घर के अंदर (शरीर) मरे ना बाहर (शरीर से मुक्त),


और इस माया को ना शरीर से बंध के ना शरीर के बाहर काटा जा सकता है, 


जब सरल हृदय से प्रह्लाद बन के हम उस अनंत ऊर्जा का ध्यान करते है, तब वो पशु से मानव बन कर हमें सांसो को डोरी (दहलीज) जो शरीर (घर) और निशरीर (घर के बाहर) को जोड़ती है, के हृदय को फाड़ कर, ( भक्ति के मार्ग से अपने पूरे हृदय को खोलना) हमे मोक्ष के मार्ग में ले जाती है।


भगवान नृसिंह का तारण मंत्र


जब हृदय में भय व्याप्त हो, घोर अंधकार नजर आ रहा हो।

असमंजस की स्थिति हो, रात्रि में बुरे स्वप्न परेशान कर रहे हो। मृत्यु का भय सता रहा हो। आकाश और प्रकृति में महान उत्पातो का भय आ रहा हो। ऐसी स्थिति में भगवान श्री नृसिंह का स्मरण सारे दुःखो से छुटकारा दिलाने वाला माना जाता है। इनका हृदय में सिर्फ ध्यान ही भय को समाप्त करने वाला है। 


भगवान नृसिंह का सरल ध्यान-

जिनके शरीर की कांति सूर्य के समान चमकीले पर्वत के तुल्य है, जो अपने तेज़ से समस्त राक्षस गणों को डरा रहे हैं, जो अपने दोनों बाहुओं में शंख और चक्र धारण किये हुए है, जिनके बड़े बड़े दाँतो से युक्त मुखमंडल में ज्वाला उगलती हुई जीभ लपलपा रही है, जिनके समस्त बाल समूह ऊपर को खड़े है, ऐसे सर्वव्यापक भगवान श्री नृसिंह का मैं भजन करता हूं। 


अपने हृदय में भगवान नृसिंह का ध्यान करते हुए, निम्न मंत्र जो मुझे भगवान नृसिंह के ट्रांसमिशन के दौरान प्रकट हुआ था, का जाप करें। इस मंत्र में भगवान नृसिंह का सौम्य भाव है, जो भक्तो को भवसागर से तारने वाला है। 


भगवान नृसिंह का तारण मंत्र


अनंताय नमः, अच्युताय नमः, गोविन्दाय नमः , नृसिंहाय नमः



सरल हृदय से प्रह्लाद बन के इस मंत्र का जितना ज्यादा जाप हो सके करें, ये आपको हर प्रकार के संकट से मुक्ति दिलाने वाला होगा।


विवेक

अनंत प्रेम

अनंत प्रज्ञा


महाशक्ति रेडिएंस

Wednesday, April 14, 2021

The Adya Stotram- a powerful strot to get the blessings of Maa adya kali

आद्या स्तोत्रम्

The Adya Stotram


- आद्या स्तोत्रम् , is a hymn in tribute to Adya Ma.  


The benefits of daily recitation of the Stotram are:

•Protection from death, sickness and fear

•Conceiving, for those women who are childless

•Protection from any danger during travel especially by water

•Protection during wars

•Protection during troubled times

•Receiving the same amount of blessing as going on holy pilgrimage


Adya Ma is regarded as the physical form (manifestation) of Adya Shakti. Adya Shakti is the primary supreme force of Nature and is regarded as the force essential to the existence of the other forces on Nature. She is worshiped in the form of Goddess Kali. 


ॐ नम आद्यायै । 

श‍ृणु वत्स प्रवक्ष्यामि आद्या स्तोत्रं महाफलम् । 

यः पठेत् सततं भक्त्या स एव विष्णुवल्लभः ॥ १॥ 


मृत्युर्व्याधिभयं तस्य नास्ति किञ्चित् कलौ युगे । 

अपुत्रा लभते पुत्रं त्रिपक्षं श्रवणं यदि ॥ २॥ 


द्वौ मासौ बन्धनान्मुक्ति विप्रवक्त्रात् श्रुतं यदि । 

मृतवत्सा जीववत्सा षण्मासं श्रवणं यदि ॥ ३॥


नौकायां सङ्कटे युद्धे पठनाज्जयमाप्नुयात् । 

लिखित्वा स्थापयेद्गेहे नाग्निचौरभयं क्वचित् ॥ ४॥ 


राजस्थाने जयी नित्यं प्रसन्नाः सर्वदेवता । 

ॐ ह्रीं ब्रह्माणी ब्रह्मलोके च वैकुण्ठे सर्वमङ्गला ॥ ५॥ 


इन्द्राणी अमरावत्यामविका वरुणालये। 

यमालये कालरूपा कुबेरभवने शुभा ॥ ६॥ 


महानन्दाग्निकोने च वायव्यां मृगवाहिनी । 

नैऋत्यां रक्तदन्ता च ऐशाण्यां शूलधारिणी ॥ ७॥ 


पाताले वैष्णवीरूपा सिंहले देवमोहिनी । 

सुरसा च मणीद्विपे लङ्कायां भद्रकालिका ॥ ८॥ 


रामेश्वरी सेतुबन्धे विमला पुरुषोत्तमे । 

विरजा औड्रदेशे च कामाक्ष्या नीलपर्वते ॥ ९॥ 


कालिका वङ्गदेशे च अयोध्यायां महेश्वरी । 

वाराणस्यामन्नपूर्णा गयाक्षेत्रे गयेश्वरी ॥ १०॥ 


कुरुक्षेत्रे भद्रकाली व्रजे कात्यायनी परा । 

द्वारकायां महामाया मथुरायां माहेश्वरी ॥ ११॥ 


क्षुधा त्वं सर्वभूतानां वेला त्वं सागरस्य च । 

नवमी शुक्लपक्षस्य कृष्णसैकादशी परा ॥ १२॥ 


दक्षसा दुहिता देवी दक्षयज्ञ विनाशिनी । 

रामस्य जानकी त्वं हि रावणध्वंसकारिणी ॥ १३॥ 


चण्डमुण्डवधे देवी रक्तबीजविनाशिनी । 

निशुम्भशुम्भमथिनी मधुकैटभघातिनी ॥ १४॥


विष्णुभक्तिप्रदा दुर्गा सुखदा मोक्षदा सदा । 

आद्यास्तवमिमं पुण्यं यः पठेत् सततं नरः ॥ १५॥ 


सर्वज्वरभयं न स्यात् सर्वव्याधिविनाशनम् । 

कोटितीर्थफलं तस्य लभते नात्र संशयः ॥ १६॥ 


जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः । 

नारायणी शीर्षदेशे सर्वाङ्गे सिंहवाहिनी ॥ १७॥ 


शिवदूती उग्रचण्डा प्रत्यङ्गे परमेश्वरी । 

विशालाक्षी महामाया कौमारी सङ्खिनी शिवा ॥ १८॥ 


चक्रिणी जयधात्री च रणमत्ता रणप्रिया । 

दुर्गा जयन्ती काली च भद्रकाली महोदरी ॥ १९॥ 


नारसिंही च वाराही सिद्धिदात्री सुखप्रदा । 

भयङ्करी महारौद्री महाभयविनाशिनी ॥ २०॥ 


इति ब्रह्मयामले ब्रह्मनारदसंवादे आद्या स्तोत्रं समाप्तम् ॥ ॥ 

ॐ नम आद्यायै ॐ नम आद्यायै ॐ नम आद्यायै ॥ 


Thursday, February 18, 2021

SARWARISHT NIVARAN PRAYOG- MAHAMANTRA

आत्मा नमस्ते,

आज आपको सर्वारिष्ट निवारण के लिये अनुभूत प्रयोग बता रहा हूँ,इस पाठ के फलस्वरूप पुत्र-हीन को पुत्र-प्राप्ति होती हैं, जिसका विवाह नहीं होता, उसका विवाह हो जाता है। इस पाठ के प्रभाव से सभी प्रकार के दोषों- ज्वर, क्षय, वात-पित-कफ की पीड़ाओ और भूतादिक सभी बाधाओं का निवारण होता हैं।इसके पाठ से बेकार को जीविकोपार्जन, नौकरी व्यापार की प्राप्ति होती हैं।
विवेक
सर्वारिष्ट निवारण स्तोत्र


ॐ गं गणपतये नमः। सर्व-विघ्न-विनाशनाय, सर्वारिष्ट निवारणाय, सर्व-सौख्य-प्रदाय, बालानां बुद्धि-प्रदाय, नाना-प्रकार-धन-वाहन-भूमि-प्रदाय, मनोवांछित-फल-प्रदाय रक्षां कुरू कुरू स्वाहा।।
ॐ गुरवे नमः, ॐ श्रीकृष्णाय नमः, ॐ बलभद्राय नमः, ॐ श्रीरामाय नमः, ॐ हनुमते नमः, ॐ शिवाय नमः, ॐ जगन्नाथाय नमः, ॐ बदरीनारायणाय नमः, ॐ श्री दुर्गा-देव्यै नमः।।
ॐ सूर्याय नमः, ॐ चन्द्राय नमः, ॐ भौमाय नमः, ॐ बुधाय नमः, ॐ गुरवे नमः, ॐ भृगवे नमः, ॐ शनिश्चराय नमः, ॐ राहवे नमः, ॐ पुच्छानयकाय नमः, ॐ नव-ग्रह रक्षा कुरू कुरू नमः।।
ॐ मन्येवरं हरिहरादय एव दृष्ट्वा द्रष्टेषु येषु हृदयस्थं त्वयं तोषमेति विविक्षते न भवता भुवि येन नान्य कश्विन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि। ॐ नमो मणिभद्रे। जय-विजय-पराजिते ! भद्रे ! लभ्यं कुरू कुरू स्वाहा।।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्-सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।। सर्व विघ्नं शांन्तं कुरू कुरू स्वाहा।।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीबटुक-भैरवाय आपदुद्धारणाय महान्-श्याम-स्वरूपाय दिर्घारिष्ट-विनाशाय नाना प्रकार भोग प्रदाय मम (यजमानस्य वा) सर्वरिष्टं हन हन, पच पच, हर हर, कच कच, राज-द्वारे जयं कुरू कुरू, व्यवहारे लाभं वृद्धिं वृद्धिं, रणे शत्रुन् विनाशय विनाशय, पूर्णा आयुः कुरू कुरू, स्त्री-प्राप्तिं कुरू कुरू, हुम् फट् स्वाहा।।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः। ॐ नमो भगवते, विश्व-मूर्तये, नारायणाय, श्रीपुरूषोत्तमाय। रक्ष रक्ष, युग्मदधिकं प्रत्यक्षं परोक्षं वा अजीर्णं पच पच, विश्व-मूर्तिकान् हन हन, ऐकाह्निकं द्वाह्निकं त्राह्निकं चतुरह्निकं ज्वरं नाशय नाशय, चतुरग्नि वातान् अष्टादष-क्षयान् रांगान्, अष्टादश-कुष्ठान् हन हन, सर्व दोषं भंजय-भंजय, तत्-सर्वं नाशय-नाशय, शोषय-शोषय, आकर्षय-आकर्षय, मम शत्रुं मारय-मारय, उच्चाटय-उच्चाटय, विद्वेषय-विद्वेषय, स्तम्भय-स्तम्भय, निवारय-निवारय, विघ्नं हन हन, दह दह, पच पच, मथ मथ, विध्वंसय-विध्वंसय, विद्रावय-विद्रावय, चक्रं गृहीत्वा शीघ्रमागच्छागच्छ, चक्रेण हन हन, पा-विद्यां छेदय-छेदय, चौरासी-चेटकान् विस्फोटान् नाशय-नाशय, वात-शुष्क-दृष्टि-सर्प-सिंह-व्याघ्र-द्विपद-चतुष्पद अपरे बाह्यं ताराभिः भव्यन्तरिक्षं अन्यान्य-व्यापि-केचिद् देश-काल-स्थान सर्वान् हन हन, विद्युन्मेघ-नदी-पर्वत, अष्ट-व्याधि, सर्व-स्थानानि, रात्रि-दिनं, चौरान् वशय-वशय, सर्वोपद्रव-नाशनाय, पर-सैन्यं विदारय-विदारय, पर-चक्रं निवारय-निवारय, दह दह, रक्षां कुरू कुरू, ॐ नमो भगवते, ॐ नमो नारायणाय, हुं फट् स्वाहा।।
ठः ठः ॐ ह्रीं ह्रीं। ॐ ह्रीं क्लीं भुवनेश्वर्याः श्रीं ॐ भैरवाय नमः। हरि ॐ उच्छिष्ट-देव्यै नमः। डाकिनी-सुमुखी-देव्यै, महा-पिशाचिनी ॐ ऐं ठः ठः। ॐ चक्रिण्या अहं रक्षां कुरू कुरू, सर्व-व्याधि-हरणी-देव्यै नमो नमः। सर्व प्रकार बाधा शमनमरिष्ट निवारणं कुरू कुरू फट्। श्रीं ॐ कुब्जिका देव्यै ह्रीं ठः स्वाहा।।
शीघ्रमरिष्ट निवारणं कुरू कुरू शाम्बरी क्रीं ठः स्वाहा।।
शारिका भेदा महामाया पूर्णं आयुः कुरू। हेमवती मूलं रक्षा कुरू। चामुण्डायै देव्यै शीघ्रं विध्नं सर्वं वायु कफ पित्त रक्षां कुरू। मन्त्र तन्त्र यन्त्र कवच ग्रह पीडा नडतर, पूर्व जन्म दोष नडतर, यस्य जन्म दोष नडतर, मातृदोष नडतर, पितृ दोष नडतर, मारण मोहन उच्चाटन वशीकरण स्तम्भन उन्मूलनं भूत प्रेत पिशाच जात जादू टोना शमनं कुरू। सन्ति सरस्वत्यै कण्ठिका देव्यै गल विस्फोटकायै विक्षिप्त शमनं महान् ज्वर क्षयं कुरू स्वाहा।।
सर्व सामग्री भोगं सप्त दिवसं देहि देहि, रक्षां कुरू क्षण क्षण अरिष्ट निवारणं, दिवस प्रति दिवस दुःख हरणं मंगल करणं कार्य सिद्धिं कुरू कुरू। हरि ॐ श्रीरामचन्द्राय नमः। हरि ॐ भूर्भुवः स्वः चन्द्र तारा नव ग्रह शेषनाग पृथ्वी देव्यै आकाशस्य सर्वारिष्ट निवारणं कुरू कुरू स्वाहा।।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं बटुक भैरवाय आपदुद्धारणाय सर्व विघ्न निवारणाय मम रक्षां कुरू कुरू स्वाहा।।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीवासुदेवाय नमः, बटुक भैरवाय आपदुद्धारणाय मम रक्षां कुरू कुरू स्वाहा।।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीविष्णु भगवान् मम अपराध क्षमा कुरू कुरू, सर्व विघ्नं विनाशय, मम कामना पूर्णं कुरू कुरू स्वाहा।।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीबटुक भैरवाय आपदुद्धारणाय सर्व विघ्न निवारणाय मम रक्षां कुरू कुरू स्वाहा।।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ श्रीदुर्गा देवी रूद्राणी सहिता, रूद्र देवता काल भैरव सह, बटुक भैरवाय, हनुमान सह मकर ध्वजाय, आपदुद्धारणाय मम सर्व दोषक्षमाय कुरू कुरू सकल विघ्न विनाशाय मम शुभ मांगलिक कार्य सिद्धिं कुरू कुरू स्वाहा।।
एष विद्या माहात्म्यं च, पुरा मया प्रोक्तं ध्रुवं। शम क्रतो तु हन्त्येतान्, सर्वाश्च बलि दानवाः।। य पुमान् पठते नित्यं, एतत् स्तोत्रं नित्यात्मना। तस्य सर्वान् हि सन्ति, यत्र दृष्टि गतं विषं।। अन्य दृष्टि विषं चैव, न देयं संक्रमे ध्रुवम्। संग्रामे धारयेत्यम्बे, उत्पाता च विसंशयः।। सौभाग्यं जायते तस्य, परमं नात्र संशयः। द्रुतं सद्यं जयस्तस्य, विघ्नस्तस्य न जायते।। किमत्र बहुनोक्तेन, सर्व सौभाग्य सम्पदा। लभते नात्र सन्देहो, नान्यथा वचनं भवेत्।। ग्रहीतो यदि वा यत्नं, बालानां विविधैरपि। शीतं समुष्णतां याति, उष्णः शीत मयो भवेत्।। नान्यथा श्रुतये विद्या, पठति कथितं मया। भोज पत्रे लिखेद् यन्त्रं, गोरोचन मयेन च।। इमां विद्यां शिरो बध्वा, सर्व रक्षा करोतु मे। पुरूषस्याथवा नारी, हस्ते बध्वा विचक्षणः।। विद्रवन्ति प्रणश्यन्ति, धर्मस्तिष्ठति नित्यशः। सर्वशत्रुरधो यान्ति, शीघ्रं ते च पलायनम्।।
श्रीभृगु संहिता’ के सर्वारिष्ट निवारण खण्ड में इस अनुभूत स्तोत्र के 40 पाठ करने की विधि बताई गई है। इस पाठ से सभी बाधाओं का निवारण होता है।
किसी भी देवता या देवी की प्रतिमा या यन्त्र के सामने बैठकर धूप दीपादि से पूजन कर इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिये। विशेष लाभ के लिये ‘स्वाहा’ और ‘नमः’ का उच्चारण करते हुए ‘घृत मिश्रित गुग्गुल’ से आहुतियाँ दे सकते हैं। इस स्रोत का पाठ अपने लिए करना है तो मम" का उच्चारण करें, जहां यजमान का उच्चारण है वहाँ।
विवेक
अनंत प्रेम
अनंत प्रज्ञा

क्या भगवान राम ने भी की थी तांत्रिक उपासना?

 क्या भगवान राम ने भी की थी तांत्रिक उपासना? क्या सच में भगवान राम ने की थी नवरात्रि की शुरूआत ? भागवत पुराण में शारदीय नवरात्र का महत्‍व बह...