अवधूता गगन घटा गहरानी रे
उठो ग्यानी खेत संभारो, बह निसरेगा पानी ||१||
निरत सुरत के बेल बनावो, बीजा बोवो निज धानी
दुबध्या दुब जमन नहि पावे, बोवो नामकी धानी ||२||
कबीर की ये आवाज़, बार बार अनंत की पुकार याद दिलाती है।
कुमार गंधर्व की आवाज़ में ये कबीर वाणी हृदय के अंतरतम तार को छेड़ देती है। एक एक लाइन जगाने के लिए काफी है। आज जब चारो और भय, और निराशा का माहौल है, ये शब्द जगाने के किये काफी है।
अवधूता गगन घटा गहरानी रे
अवधूत का अर्थ "गोरक्ष-सिद्धांत-संग्रह" के अनुसार वह सभी प्रकार के प्रकृति विकारों से रहित हुआ करता है। वह कैवल्य की उपलब्धि के लिए आत्मस्वरूप के अनुसंधान में निरत रहा करता है और उसकी अनुभूति निर्गुण एवं सगुण से परे होती है।
गगन में घटा का अर्थ, माया और अज्ञानता का आवरण है। कबीर दास ने बहुत सुंदर चित्रण किया है, हे अवधूत देख अब अज्ञानता की घटा फिर से आसमां में छा गयी है।
पश्चिम दिशा से उलटी बादल, रुम झूम बरसे मेहा
पश्चिम दिशा जीवन की शाम, मृत्यु की सूचक है, जो कभी भी आ सकती है। अगर मृत्यु के क्षण में भी ये बादल रहे, तो कैसे मुक्त होंगे। अज्ञानता के बादल के साथ, मृत्यु की दस्तक भी कभी भी आ सकती है।
उठो ग्यानी खेत संभारो, बह निसरेगा पानी ||१||
खेत हमारे शरीर का सूचक है, कबीर जी कहते है, उठ ज्ञानी अब अपने शरीर और अज्ञानता के प्रति सचेत हो, नहीं तो कब प्राण जाएंगे पता भी नही चलेगा।
निरत सुरत के बेल बनावो, बीजा बोवो निज धानी
निरत और सूरत के दो बैल बना कर नाम का बीज बोयें। ये दोनों शब्द में साधना का गहनतम रहस्य छुपा है।
नाथ योग में शब्द अनाहत नाद है, सुरति वह शब्द है, जो साधना में चित्त को प्रवर्तित करता है। औऱ निरति वह निरालंब अवस्था है, जो चित्त के शब्द में या नाद में लीन हो जाने पर आती हैं।
सुरति शब्द की वो अवस्था है जब वह चित्त में स्थिर रहता है, साधना की अवस्था मे आज्ञा चक्र में अनाहत नाद के रूप में शब्द रहता है। निरति उससे भी ऊँची अवस्था है, जब शब्द भी बिंदु में विलीन हो जाता हैं।
कबीर दास जी कहते है, ये दोनों साकार और निराकार रूपी बैल पे चित्त को एकाग्र कर नाम का जाप करें।
दुबध्या दुब जमन नहि पावे, बोवो नामकी धानी ||२|
मन में किसी भी प्रकार की दुविधा को घास के जैसे उगने ना दे। और चित्त को नाम मे स्थिर करें।
मेरे शब्दों में कबीर
विवेक
अनंत प्रेम
अनंत प्रज्ञा
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