ऋतु फागुन नियरानी,
कोई पिया से मिलाये ।
पिया को रूप कहाँ तक बरनू,
रूपहि माहिं समानी ।
जौ रँगे रँगे सकल छवि छाके,
तन- मन सबहि भुलानी।
ऋतु फागुन नियरानी,
कोई पिया से मिलाये ।
यों मत जान यहि रे फाग है,
यह कछु अकह- कहानी ।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो,
यह गति विरलै जानी ।।
कोई पिया से मिलाये ।
ऋतु फागुन नियरानी,
कोई पिया से मिलाये ।
कबीर
जब तक जीवात्मा का परमात्मा रूपी पिया से मिलन नही हो जाता, तब तक सारी खोज अधूरी है। कबीर दास का ये गीत, पंडित जसराज की आवाज़ में दिल को छू लेने वाला है।
अब तो फागुन भी आ गया, कोई पिया से मिलाएं। उस परमात्मा का रूप का क्या बखान करू, जिसका रूप मुझ पर समाया हुआ है।
जौ रँगे रँगे सकल छवि छाके,
तन- मन सबहि भुलानी।
जो रंग से रंगे हुए है, छवि-छाके = छांव-रूपी मदिरा से छके हुए । छकना पीने को कहते हैं। पंजाब में अभी तक लोग ‘जल छक लो' का जल पी लो के अर्थ में बोलते हैं। जैसे पियक्कड़ का अर्थ बहुत मदिरा पीने वाला होता है, वैसे ही 'छाके' का अर्थ भांग पा कर मतवाल होता है । अतः ‘छाब-छाके' का अर्थ छवि-रूपा मदिरा पी कर मतवाल हुया ।। यहा पर कबीर जी परमात्मा के प्रेम रूपी भांग पी कर तन मन सब को भूला कर, अपने अहंकार को मिटा कर, परमात्म तत्व में विलीन हो जाने को कहते है। इस गति को विरले ही जान पाते है, इसको शब्दो मे कहना नामुमकिन है।
इस फ़ाग के उत्सव में आप सभी अपने अंदर के परमात्म तत्व का साक्षात्कार कर पाएं यही कामना है।
विवेकअ
अनंतप्रेम
अनंत प्रज्ञा
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