Thursday, February 18, 2021

REIKI


सभी दिव्यात्माओ को आत्मनमन,

रेकी की ऊर्जा का प्रयोग प्राचीन काल से ही हमारे ऋषि मुनि करते थे । प्राचीन भारत में न्यास योग एक ऐसी ही पद्धति थी । हाथों के द्वारा ऊर्जा का संचार करके बड़ी से बड़ी बिमारी ठिक की जाती थी । Dr. Usui के कारण ये ज्ञान फिर से पूरे विश्व में प्रवाहित हुआ ।
विवेक
सम्मोहन में आँखों से किसी को सम्मोहित करने की कला के बारे में अपने कई बार पढ़ा है लेकिन क्या वाकई अभ्यास मात्र से आप किसी को भी सम्मोहित करने में सक्षम हो जाते है. नहीं ! क्यों की शरीर की प्राण ऊर्जा का प्रवाह आँखों के अलावा हाथो के पोरुओ में भी बहती है.इसलिए अगर हाथ में प्रवाह करती प्राण ऊर्जा के प्रवाह को अभ्यास द्वारा बढ़ा लिया जाये तो सिर्फ सम्मोहन ही नहीं आप दैनिक जीवन किसी को भी अपना बना सकते है. हाथो के पोरुओ से बहने वाली प्राण शक्ति को विकसित कर उसे शक्तिशाली चुंबकीय में बदल कर जड़ पदार्थ को प्रभावित कर सकने की क्षमता होती है. ये क्रिया स्पर्श द्वारा की जाती है. इसके द्वारा किसी प्राणी को भी हम सुविधापूर्वक सम्मोहित कर कर सकते है. सम्मोहन के क्षेत्र में इसे "पास क्रिया" या "पास मार्जन" या फिर अध्यात्म में "रैकी" से जाना जाता है.
Dr. मेस्मेर अनुसार हर इंसान के अंदर दूसरों को अपने हाथो द्वारा प्रभावित करने की क्षमता है. इसलिए हर प्रसिद्ध व्यक्ति BODY ऑफ़ LANGUAGE को ध्यान में रखकर दूसरे लोगो से लोगो पर ध्यान दे तो वो दूसरों से बातचीत के दौरान अपने हाथो ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करते है. ये वो दूसरों को प्रभावित करने के लिए और आकर्षण में बांधे रखने के लिए करते है. इसे भारतीय सस्कृति में शक्तिपात कहते है. इसके अभ्यास के लिए जरुरी है पहले जड़ पदार्थो पर अभ्यास किया जाये फिर सजीव / जीवित प्राणी पर किया जाये।
प्राचीन काल से यह शक्ति हर इंसान में मौजूद थी आज भी है. लेकिन जिसने अभ्यास द्वारा बढ़ा लिया उसने इस शक्ति को जाना है. इसका स्पर्श दिल को सुकून देने वाला होता है.बिल्कुल वैसा ही जैसा आपके बुजुर्ग देते वक़्त आपके सिर पर हाथ फेरे तब उसका अहसास कीजिये. ये अहसास ही हमें रैकी के दौरान होता है. जैसे ऊर्जा का प्रवाह एक सिरे से दूसरे सिरे में हो रहा हो. इसीलिए प्राचीन काल में जब कोई ऋषि हमें उसकी कामना पूरी होती है. पूरा करती थी हमारी प्राण ऊर्जा। इसलिए बच्चों को बुजुर्गो पैर लगना उनसे आशीर्वाद लेने जैसे संस्कार दे. क्यों की ये की ये प्राण शक्ति बीमारी, तनाव, और मुश्किल को दूर कर सकती है.
विवेक
अनंत प्रेम
अनंत प्रज्ञा

REIKI- A magnetic flow

सभी दिव्यात्माओ को आत्मनमन, हम सभी के हाथों में दिव्य चुंबकीय गुण होते हैं, थोड़े से अभ्यास से हम इसे विकसित कर सकते हैं । निम्न प्रयोग करके आप खूद इसे महसूस करे ।

विवेक
हाथो में megnetic flow करे आसान से अभ्यास द्वारा"

शरीर में अगर कही सबसे ज्यादा प्राण शक्ति(आकर्षण शक्ति) का प्रवाह रहता है तो वो है.आँखे,
हाथो और पैरो की अंगुलिया
हाथो में प्राण शक्ति को महसूस कर सकते है अपने तर्जनी अंगुली को किसी दूसरे व्यक्ति के ललाट पर लेजाकर उसे छुए बगैर थोड़ी दुरी पर गोल गोल घुमाए जितनी देर में वो आपको अपने अंगुली को हटाने या अपने ललाट में हुए दर्द को बताता है उसके अनुसार अपनी आकर्षण शक्ति काम या ज्यादा होती है.
शरीर में प्रवाह करती प्राण शक्ति को हाथो की अंगुलिया के द्वारा दुसरो पर प्रभाव छोड़ा जा सकता है.
प्रयोग :-
1. शांत बैठ कर सामने एक तकिया रखे जो हम सोते वक़्त काम लेते है उस तकिये को चुम्बक मान ले और अपने हाथो को लोहे की रोड.
2. हथेली को तकिये के ऊपर ले जाकर खोल ले जैसे की हम स्कूल में प्रतिज्ञा के वक़्त करते है. याद रहे आपका हाथ पूरा सीधा हो.
3. तकिये के एक कोने से थोड़ा ऊपर हथेली को घुमाते हुए दूसरे कोने तक ले जाये ( जैसे की ऊपर के चित्र में चुम्बक के ऊपर की लाइन बनी हुई है.)
4. अपने हथेली को 15 -20 बार ऐसे दोहराये लेकिन हथेली तकिये से थोड़ा ऊपर हो और स्पर्श न कर सके.
5. कुछ दिन के अभ्यास से हमें हथेली में गर्मी या झनझनाहट सी महसूस होती है. ये प्राण शक्ति या आकर्षण शक्ति का प्रवाह ही है.
6. हमारे नित्य दिन के क्रियाकलाप में इस प्रयोग से कही पर भी प्रभाव डाल सकते है खासतौर से वह जहा हमें खुद को दिखाना होता है जैसे की मार्केटिंग के काम में ये आकर्षण शक्ति आपके हथेली के पौरो के माध्यम से सामने वाले पर प्रभाव डालती है.
विवेक
अनंत प्रेम
अनंत प्रज्ञा

NAVEL CENTRE- Science of breath

विज्ञान : तंत्र _

भगवान् शिव ने माँ पार्वती को श्वास के गहन ज्ञान की जानकारी दी।।

नाभि केन्द्र


जिस व्यक्ति को भी जीवन केंद्रों को विकसित करना है और प्रभावित करना है, उसे पहली बात है, रिदमिक ब्रीदिंग, उसके लिए पहली बात है, लयबद्ध श्वास। चलते उठते बैठते इतनी लयबद्ध, इतनी शांत, इतनी गहरी श्वास कि श्वास का एक अलग संगीत, एक अलग हार्मनी दिन रात उसे मालूम होने लगे। आप चल रहे हैं रास्ते पर, कोई काम तो नहीं कर रहे हैं। बड़ा आनदपूर्ण होगा कि आप गहरी, शांत, धीमी और गहरी और लयबद्ध श्वास लें। दो फायदे होंगे। जितनी देर तक लयबद्ध श्वास रहेगी, उतनी देर तक आपका चिंतन कम हो जाएगा, उतनी देर तक मन के विचार बंद हो जाएंगे।
अगर श्वास बिलकुल सम हो, तो मन के विचार एकदम बंद हो जाते हैं, शांत हो जाते हैं। श्वास मन के विचारों को बहुत गहरे, दूर तक प्रभावित करती है। और श्वास ठीक से लेने में कुछ भी खर्च नहीं करना होता है। और श्वास ठीक से लेने में कोई समय भी नहीं लगाना होता है। श्वास ठीक से लेने में कहीं से कोई समय निकालने की भी जरूरत नहीं होती है। आप ट्रेन में बैठे हैं, आप रास्ते पर चल रहे हैं, आप घर में बैठे हैं धीरे धीरे अगर गहरी, शांत श्वास लेने की प्रक्रिया जारी रहे तो थोड़े दिन में यह प्रक्रिया सहज हो जाएगी। आपको इसका बोध भी नहीं रहेगा। यह सहज ही गहरी और धीमी चलने लगेगी।
जितनी श्वास की धारा धीमी और गहरी होगी, उतना ही आपका नाभिकेंद्र विकसित होगा। श्वास प्रतिक्षण जाकर नाभिकेंद्र पर चोट पहुंचाती है। अगर श्वास ऊपर से ही लौट आती है, तो नाभिकेंद्र धीरे धीरे सुस्त हो जाता है, ढीला हो जाता है। उस तक चोट नहीं पहुंचती।
पुराने लोगों ने एक सूत्र खोज निकाला था। लेकिन आदमी इतना नासमझ है कि सूत्रों को दोहराने लगता है। उनका अर्थ नहीं देख पाता, उनको समझ भी नहीं पाता। जैसे अभी वैज्ञानिकों ने पानी का एक सूत्र निकाल लिया एच टू ओ। वे कहते हैं कि पानी में उदजन और आक्सीजन दोनों के मिलने से पानी बनता है। दो अणु उदजन के, एक अणु आक्सीजन का तो वह एच टू ओ फार्म बना लिया, उदजन दो और आक्सीजन एक। अब कोई आदमी अगर बैठ जाए और दोहराने लगे एच टू ओ, एच टू ओ, जैसे लोग राम—राम, ओम—ओम दोहराते हैं, तो उसको हम पागल कहेंगे। क्योंकि सूत्र को दोहराने से क्या होता है? सूत्र तो केवल सूचक है किसी बात का। वह बात समझ में आ जाए तो सूत्र सार्थक है।
ओम आप निरंतर सुनते होंगे। लोग बैठे दोहरा रहे हैं, ओम ओम जप कर रहे हैं! उन्हें पता नहीं है ओम तो एच टू ओ जैसा सूत्र है। ओम में तीन अक्षर हैं अ है, उ है, म है। शायद आपने खयाल न किया हो अगर आप मुंह बंद करके जोर से ‘अ’ कहें भीतर तो ‘अ’ की ध्वनि मस्तिष्क में गूंजती हुई मालूम होगी। ‘अ’ जो है, वह मस्तिष्क के केंद्र का सूचक है। अगर आप भीतर ‘उ’ कहें, तो ‘उ’ की ध्वनि हृदय में गूंजती हुई मालूम होगी। ‘उ’ हृदय का सूचक है। और अगर आप ‘म’ कहें भीतर, तीसरा ओम का हिस्सा, तो वह नाभि के पास आपको गूंजता हुआ मालूम होगा। यह ‘अ, उ और म’ मस्तिष्क, हृदय और नाभि के तीन सूचक शब्द हैं। अगर आप ‘ म ‘ कहें, तो आपको सारा जोर नाभि पर पड़ता हुआ मालूम पड़ेगा। अगर आप ‘उ’ कहें, तो जोर हृदय तक जाता हुआ मालूम पड़ेगा। अगर आप ‘अ’ कहें, तो ‘अ’ मस्तिष्क में ही गंज कर विलीन हो जाएगा।
ये तीन सूत्र हैं। ‘अ’ से ‘उ’ की तरफ और ‘उ’ से ‘ म’ की तरफ जाना है। ओम ओम बैठ कर दोहराने से कुछ भी नहीं होता। तो जो इस दिशा में ले जाए ‘अ’ से ‘उ’ की तरफ, ‘उ’ से ‘म’ की तरफ वे प्रक्रियाएं ध्यान देने की हैं। उसमें गहरी श्वास पहली प्रक्रिया है। जितनी गहरी श्वास, जितनी लयबद्ध, जितनी संगतिपूर्ण, उतनी ही आपके भीतर जीवन चेतना नाभि के आसपास विकीर्ण होने लगेगी, फैलने लगेगी।
नाभि एक जीवित केंद्र बन जाएगी। और थोड़े ही दिनों में आपको नाभि से अनुभव होने लगेगा कि कोई शक्ति बाहर फिंकने लगी। और थोड़े ही दिनों में आपको यह भी अनुभव होने लगेगा कि कोई शक्ति नाभि के करीब आकर खींचने भी लगी। आप पाएंगे कि एक बिलकुल लिविंग, एक जीवंत, एक डाइनैमिक केंद्र नाभि के पास विकसित होना शुरू हो गया है।
और जैसे ही यह अनुभव होगा, और बहुत से अनुभव इसके आस पास प्रकट होने शुरू हो जाएंगे।
फिजियोलॉजिकलि, शारीरिक रूप से श्वास पहली चीज है नाभि के केंद्र को विकसित करने के लिए। मानसिक रूप से कुछ गुण नाभि को विकसित करने में सहयोगी होते हैं। जैसा मैंने आपसे कहा, अभय, फियरलेसनेस। जितना आदमी भयभीत होगा, उतना ही आदमी नाभि के निकट नहीं पहुंच पाएगा। जितना आदमी निर्भय होगा, उतना ही नाभि के निकट पहुंचेगा।

VASHISTHA KRIT MRITSANJIVANI MANTRA


सभी दिव्यात्माओ को आत्मनमन,यदि घर मे अशान्ति गृह क्लेश तथा रोगसे ग्रसित परीवारके सदस्य है तो नियमित 7 बार यह स्तोत्रकी पाठ हर सुबह पुजनके बाद करे और आप खुद जान जाये ..!!

विवेक
।श्रीमहादेव-प्रोक्तं-मृत-सञ्जीवनी-कवचम् (महा-गोपनीय कवच)
।। पूर्व-पीठिका ।।
एवमाराध्य गौरीशं देवं मृत्युञ्जयमहेश्वरं ।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना कवचं प्रजपेत् सदा ॥१॥
सारात् सार-तरं पुण्यं गुह्याद्गुह्यतरं शुभं ।
महादेवस्य कवचं मृतसञ्जीवनामकं ॥ २॥
समाहित-मना भूत्वा श्रृणुष्व कवचं शुभं ।
श्रृत्वैतद्दिव्य कवचं रहस्यं कुरु सर्वदा ॥३॥
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीमृतसञ्जीवनीकवचस्य श्री महादेव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमृत्युञ्जयरुद्रो देवता ॐ बीजं, जूं शक्तिः, सः कीलकम् मम (अमुकस्य) रक्षार्थं कवचपाठे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यासः- श्री महादेव ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीमृत्युञ्जयरुद्रो देवतायै नमः हृदि, ॐ बीजाय नमः गुह्ये, जूं शक्तये नमः पादयो, सः कीलकाय नमः नाभौ, मम (अमुकस्य) रक्षार्थं कवचपाठे विनियोगाय नमः सर्वांगे।
कर-न्यासः- ॐ जूं सः अंगुष्ठाभ्यां नमः। ॐ जूं सः तर्जनीभ्यां स्वाहा। ॐ जूं सः मध्माभ्यां वषट्। ॐ जूं सः अनामिकाभ्यां हुँ। ॐ जूं सः कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्। ॐ जूं सः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां फट्।
हृदयादि-न्यासः- ॐ जूं सः हृदयाय नमः, ॐ जूं सः शिरसे स्वाहा, ॐ जूं सः शिरसे वषट्, ॐ जूं सः-कवचाय हुम्। ॐ जूं सः-त्रयाय वौषट्, ॐ जूं सः अस्त्राय फट्।
ध्यान-
चन्द्रार्काग्नि-विलोचनं स्मित-मुखं पद्म-द्वयान्तः-स्थितम्।
मुद्रा-पाश-मृगाक्ष-सूत्र-विलसत्पाणिं हिमांशु-प्रभम् |
कोटीन्दु-प्रगलत्सुधाऽऽप्लुत-तनुं हारादि-भूषोज्ज्वलं
कान्तं विश्व-विमोहनं पशुपतिं मृत्युञ्जयं भावयेत् ||
॥ मूल कवच पाठ ॥
वराभयकरो यज्वा सर्व-देव-निषेवितः ।
मृत्युञ्जयो महादेवः प्राच्यां मां पातु सर्वदा ॥४॥
दधानः शक्तिमभयां त्रिमुखः षड्भुजः प्रभुः ।
सदाशिवोऽग्निरूपी मामाग्नेय्यां पातु सर्वदा ॥५॥
अष्टादशभुजोपेतो दण्डाभयकरो विभुः।
यमरुपी महादेवो दक्षिस्यां सदाऽवतु ॥६॥
खड्गाभयकरो धीरो रक्षोगणनिषेवितः।
रक्षोरुपी महेशो मां नैऋत्यां सर्वदाऽवतु ॥७॥
पाशाभयभुजः सर्वरत्नाकर-निषेवितः।
वरुणात्मा महादेवः पश्चिमे मां सदाऽवतु ॥८॥
गदाभयकरः प्राणनाशकः सर्वदा गतिः।
वायव्यां मारुतात्मा मां शंकर पातु सर्वदा ॥९॥
खड्गाभयकरस्थो मां नायकः परमेश्वरः।
सर्वात्मान्तरदिग्भागे पातु मां शंकरः प्रभुः ॥१०॥
शूलाभयकरः सर्वविद्यानामधिनायकः।
ईशानात्मा तथैशान्यां पातु मां परमेश्वरः ॥११॥
ऊर्ध्वभागे ब्रह्मारुपी विश्वात्माऽधः सदाऽवतु।
शिरो मे शंकरः पातु ललाटं चन्द्रशेखरः ॥१२॥
भ्रूमध्यं सर्वलोकेशस्त्रिनेत्रो लोचनेऽवतु।
भ्रूमध्यं गिरिशः पातु कर्णी पातु महेश्वरः ॥१३॥
नासिकां मे महादेवः ओष्ठौ पातु वृषध्वजः।
जिह्वां मे दक्षिणामूर्तिर्दन्तान् मे गिरिशोऽवतु ॥१४॥
मृत्युञ्जयो मुखं पातु कण्ठं मे नागभूषणः।
पिनाकी मत्करौ पातु त्रिशूलो हृदयं मम ॥१५॥
पञ्चवक्त्रः स्तनौ पातु जठरं जगदीश्वरः।
नाभिं पातु विरुपाक्षः पार्श्वो मे पार्वतीपतिः ॥१६॥
कटिद्वयं गिरिशो मे पृष्ठं मे प्रमथाधिपः।
गुह्यं महेश्वरः पातु ममोरु पातु भैरवः ॥१७॥
जानुनी मे जगद्धर्ता जंघे मे जगदम्बिका।
पादौ मे सततं पातु लोकवन्द्यः सदाशिवः ॥१८॥
गिरिशः पातु मे भार्या भवः पातु सुतान् मम।
मृत्युञ्जयो ममायुष्यं चित्तं मे गणनायकः। ॥१९॥
सर्वाङ्गं मे सदा पातु कालकालः सदाशिवः ।
एतत्ते कवचं पुण्यं देवतानां च दुर्लभम् ॥२०॥
।। फलश्रुति ।।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना महादेवेन कीर्तितम् ।
सह्स्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम् ॥२१॥
यः पठेच्छृणुयान्नित्यं श्रावयेत्सु समाहितः ।
सकालमृत्युं निर्जित्य सदायुष्यं समश्नुते ॥२२॥
हस्तेन वा यदा स्पृष्ट्वा मृतं सञ्जीवयत्यसौ ।
आधयोव्याध्यस्तस्य न भवन्ति कदाचन ॥२३॥
कालमृयुमपि प्राप्तमसौ जयति सर्वदा ।
अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते मानवोत्तमः ॥२४॥
युद्दारम्भे पठित्वेदमष्टाविशतिवारकं ।
युद्दमध्ये स्थितः शत्रुः सद्यः सर्वैर्न दृश्यते ॥२५॥
न ब्रह्मादीनि चास्त्राणि क्षयं कुर्वन्ति तस्य वै ।
विजयं लभते देवयुद्दमध्येऽपि सर्वदा ॥२६॥
प्रातरूत्थाय सततं यः पठेत्कवचं शुभं ।
अक्षय्यं लभते सौख्यमिह लोके परत्र च ॥२७॥
सर्वव्याधिविनिर्मृक्तः सर्वरोगविवर्जितः ।
अजरामरणो भूत्वा सदा षोडशवार्षिकः ॥२८॥
विचरव्यखिलान् लोकान् प्राप्य भोगांश्च दुर्लभान् ।
तस्मादिदं महागोप्यं कवचम् समुदाहृतम् ॥२९॥
मृतसञ्जीवनं नाम्ना देवतैरपि दुर्लभम् ॥३०॥
॥ वसिष्ठ कृत मृतसञ्जीवन स्तोत्रम् ॥
विवेक
अनंत प्रेम
अनंत प्रज्ञा

Wednesday, February 17, 2021

ADI SHANKARACHARYA AND SHAKTI


सभी दिव्यात्माओं को आत्मनमन, आचार्य शंकर के जीवन में घटी एक छोटी सी घटना ने उन्हें ज्ञान का बड़ा पाठ पढ़ाया था, इस घटना के पूर्व आचार्य शंकर निरपेक्ष ब्रम्हा को ही सत्य मानते थे, लेकिन इस घटना के बाद उन्हें अहसास हुआ की शक्ति के बिना शिव तत्त्व अधूरा है।

विवेक
आचार्य शंकर एक बार ब्रह्म मुहूर्त में अपने शिष्यों के साथ एक अति सँकरी गली से स्नान हेतु मणिकर्णिका घाट जा रहे थे। रास्ते में एक युवती अपने मृत पति का सिर गोद में लिए विलाप करती हुई बैठी थी। आचार्य शंकर के शिष्यों ने उस स्त्री से अपने पति के शव को हटाकर रास्ता देने की प्रार्थना की, लेकिन वह स्त्री उसे अनसुना कर रुदन करती रही। तब स्वयं आचार्य ने उससे वह शव हटाने का अनुरोध किया।
उनका आग्रह सुनकर वह स्त्री कहने लगी- ‘ हे संन्यासी ! आप मुझसे बार-बार यह शव हटाने के लिए कह रहे हैं। आप इस शव को ही हट जाने के लिए क्यों नहीं कहते ? ’
यह सुनकर आचार्य बोले- ‘ हे देवी ! आप शोक में कदाचित यह भी भूल गई कि शव में स्वयं हटने की शक्ति ही नहीं है।’
स्त्री ने तुरंत उत्तर दिया- ‘ महात्मन् आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष ब्रह्म ही जगत का कर्ता है। फिर शक्ति के बिना यह शव क्यों नहीं हट सकता ? ’
उस स्त्री का ऐसा गंभीर, ज्ञानमय, रहस्यपूर्ण वाक्य सुनकर आचार्य वहीं बैठ गए। उन्हें समाधि लग गई। अंत:चक्षु में उन्होंने देखा- सर्वत्र आद्याशक्ति महामाया लीला विलाप कर रही हैं। उनका हृदय अनिवर्चनीय आनंद से भर गया और मुख से मातृ वंदना की शब्दमयी धारा स्तोत्र बनकर फूट पड़ी -
नित्यानन्दकरी वराभयकरी सौन्दर्यरत्नाकरी
निर्धूताखिलघोरपावनकरी प्रत्यक्षमाहेश्वरी ।
प्रालेयाचलवंशपावनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥१॥
नानारत्नविचित्रभूषणकरी हेमाम्बराडम्बरी
मुक्ताहारविलम्बमानविलसद्वक्षोजकुम्भान्तरी ।
काश्मीरागरुवासिताङ्गरुचिरे काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥२॥
योगानन्दकरी रिपुक्षयकरी धर्मार्थनिष्ठाकरी
चन्द्रार्कानलभासमानलहरी त्रैलोक्यरक्षाकरी ।
सर्वैश्वर्यसमस्तवाञ्छितकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥३॥
कैलासाचलकन्दरालयकरी गौरी उमा शङ्करी
कौमारी निगमार्थगोचरकरी ओङ्कारबीजाक्षरी ।
मोक्षद्वारकपाटपाटनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥४॥
दृश्यादृश्यविभूतिवाहनकरी ब्रह्माण्डभाण्डोदरी
लीलानाटकसूत्रभेदनकरी विज्ञानदीपाङ्कुरी ।
श्रीविश्वेशमनःप्रसादनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥५॥
विवेक
अनंत प्रेम
अनंत प्रज्ञा

KHECHARI MUDRA


सभी दिव्यात्माओं को आत्मनमन, आपने पिछली पोस्ट में चंद्र बिंदु और खेचरी मुद्रा के बारे में पढ़ा ,उसी कड़ी में अगली पोस्ट जिसमे खेचरी मुद्रा के लाभ के बारे में अन्य ग्रंथो के वर्णन प्रस्तुत कर रहा।

विवेक
*खेचरी मुद्रा और रसानुभूति*
खेचरी मुद्रा का भावपक्ष ही वस्तुतः उस प्रक्रिया का प्राण है। मस्तिष्क मध्य को-ब्रह्मरंध्र अवस्थित सहस्रार को-अमृत-कलश माना गया है और वहाँ से सोमरस स्रवित होते रहने का उल्लेख है। जिव्हा को जितना सरलतापूर्वक पीछे तालु से सटाकर जितना पीछे ले जा सकना सम्भव हो उतना पीछे ले जाना चाहिए।शारीरिक अवयवों पर अनावश्यक दबाव न डालकर सारी प्रक्रिया को ध्यान परक-भावना मूलक ही रखना होगा।
तालु और जिव्हा को इस प्रकार सटाने के उपरान्त ध्यान किया जाना चाहिए कि तालु छिद्र से सोम अमृत का-सूक्ष्म स्राव टपकता है और जिव्हा इन्द्रिय के गहन अन्तराल में रहने वाली रस तन्मात्रा द्वारा उसका पान किया जा रहा है। इसी सम्वेदना को अमृत पान पर सोमरस पास की अनुभूति कहते हैं। प्रत्यक्षतः कोई मीठी वस्तु खाने आदि जैसा कोई स्वाद तो नहीं आता, पर कई प्रकार के दिव्य रसास्वादन उस अवसर पर हो सकते हैं। यह इन्द्रिय अनुभूतियाँ मिलती हों तो हर्ज नहीं, पर वे आवश्यक या अनिवार्य नहीं है। मुख्य तो वह भावपक्ष है जो इस आस्वादन के बहाने गहन रस सम्वेदना से सिक्त रहता है। यही आनन्द और उल्लास की अनुभूति खेचरी मुद्रा की मूल उपलब्धि है।
देवी भागवत् पुराण में महाशक्ति की वन्दना करते हुए उसे कुण्डलिनी और खेचरी मुद्रा से सम्बन्धित बताया गया है-
तालुस्था त्वं सदाधारा विंदुस्था विंदुमालिनी। मूले कुण्डलीशक्तिर्व्यापिनी केशमूलगा॥
-देवी भागवत्
अमृतधारा सोम स्राविनी खेचरी रूप तालु में, भ्रू मध्य भाग आज्ञाचक्र में बिन्दु माला और मूलाधार चक्र में कुण्डलिनी बनकर आप ही निवास करती है और प्रत्येक रोम कूप में विद्यमान् है।
शिव संहिता में प्रसुप्त कुंडलिनी का जागरण करने के लिए खेचरी मुद्रा का अभ्यास आवश्यक बताते हुए कहा गया है-
तस्मार्त्सवप्रयत्नेन प्रबोधपितुमीश्वरीम्। ब्रह्मरन्ध्रमुखे सुप्ताँ मुद्राभ्यासं समाचरेत्-शिव संहिता
इसलिए साधक को ब्रह्मरन्ध्र के मुख में रास्ता रोके सोती पड़ी कुण्डलिनी को जागृत करने के लिए सर्व प्रकार से प्रयत्न करना चाहिए और खेचरी मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए।
कभी कभी खेचरी मुद्रा के अभ्यास काल में कई प्रकार के रसों के आस्वादन जैसी झलक भी मिलती है। कई बार रोमांच जैसा होने लगता है, पर यह सब आवश्यक या अनिवार्य नहीं। मूल उद्देश्य तो भावानुभूति ही है।
अमृतास्वादनं पश्चाज्जिव्हाग्रं संप्रवर्तते। रोमाँचश्च तथानन्दः प्रकर्षेणोपजायते-योग रसायनम् 255
जिव्हा में अमृत-सा सुस्वाद अनुभव होता है और रोमांच तथा आनन्द उत्पन्न होता है।
प्रथमं लवण पश्चात् क्षारं क्षीरोपमं ततः। द्राक्षारससमं पश्चात् सुधासारमयं ततः-योग रसायनम्
खेचरी मुद्रा के समय उस रस का स्वाद पहले लवण जैसा, फिर क्षार जैसा, फिर दूध जैसा, फिर द्राक्षारस जैसा और तदुपरान्त अनुपम सुधा, रस-सा अनुभव होता है।
आदौ लवण क्षारं च ततस्तिक्त कषायकम्। नवनीतं धृत क्षीर दधित क्रम धूनि च। द्राक्षा रसं च पीयूषं जप्यते रसनोदकम-पेरण्ड संहिता
खेचरी मुद्रा में जिव्हा को क्रमशः नमक, क्षार, तिक्त, कषाय, नवनीत, धृत, दूध, दही, द्राक्षारस, पीयूष, जल जैसे रसों की अनुभूति होती है।
अमृतास्वादनाछेहो योगिनो दिव्यतामियात्। जरारोगविनिर्मुक्तश्चिर जीवति भूतले-योग रसायनम्
भावनात्मक अमृतोपम स्वाद मिलने पर योगी के शरीर में दिव्यता आ जाती है और वह रोग तथा जीर्णता से मुक्त होकर दीर्घकाल तक जीवित रहता है।
एक योग सूत्र में खेचरी मुद्रा से अणिमादि सिद्धियों की प्राप्ति का उल्लेख है-
तालु मूलोर्ध्वभागे महज्ज्योति विद्यतें तर्द्दशनाद् अणिमादि सिद्धिः।
तालु के ऊर्ध्व भाग में महा ज्योति स्थित है, उसके दर्शन से अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त होती है।
ब्रह्मरन्ध्र साधना की खेचरी मुद्रा प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में शिव संहिता में इस प्रकार उल्लेख मिलता है-
ब्रह्मरंध्रे मनोदत्वा क्षणार्ध मदि तिष्ठति । सर्व पाप विनिर्युक्त स याति परमाँ गतिम्॥
अस्मिल्लीन मनोयस्य स योगी मयि लीयते। अणिमादि गुणान् भुक्तवा स्वेच्छया पुरुषोत्तमः॥
एतद् रन्ध्रज्ञान मात्रेण मर्त्यः स्सारेऽस्मिन् बल्लभो के भवेत् सः। पपान् जित्वा मुक्तिमार्गाधिकारी ज्ञानं दत्वा तारयेदद्भुतं वै॥
अर्थात्-ब्रह्मरन्ध्र में मन लगाकर खेचरी मुद्रा की साधना करने वाला योगी आत्मनिष्ठ हो जाता है। पाप मुक्त होकर परम गति को प्राप्त करता है। इस साधना में मनोलय होने पर साधक ब्रह्मलीन हो जाता है और अणिमा आदि सिद्धियों का अधिकारी बनता है।
धेरण्ड संहिता में खेचरी मुद्रा का प्रतिफल इस प्रकार बताया गया है-
न च मूर्च्छा क्षुधा तृष्णा नैव लस्यं प्रजायते। न च रोगो जरा मृत्युर्देव देहः स जायते॥
खेचरी मुद्रा की निष्णात देव देह को मूर्च्छा, क्षुधा, तृष्णा, आलस्य, रोग, जरा, मृत्यु का भय नहीं रहता।
लवण्यं च भवेद्गात्रे समाधि जयिते ध्रुवम। कपाल वक्त्र संयोगे रसना रस माप्नुयात-धेरण्ड
शरीर सौंदर्यवान बनता है। समाधि का आनन्द मिलता है। रसों की अनुभूति होती है। खेचरी मुद्रा का प्रकार श्रेयस्कर है।
ज्रामृत्युगदध्नो यः खेचरी वेत्ति भूतले। ग्रन्थतश्चार्थतश्चैव तदभ्यास प्रयोगतः॥ तं मुने सर्वभावेन गुरु गत्वा समाश्रयेत्-योगकुन्डल्युपनिषद
जो महापुरुष ग्रन्थ से, अर्थ से और अभ्यास प्रयोग से इस जरा मृत्यु व्याधि-निवारक खेचरी विद्या को जानने वाला है, उसी गुरु के पास सर्वभाव से आश्रय ग्रहण कर इस विद्या का अभ्यास करना चाहिए।
खेचरी मुद्रा से अनेकों शारीरिक, मानसिक, साँसारिक एवं आध्यात्मिक लाभों के उपलब्ध होने का शास्त्रों में वर्णन है। इससे सामान्य दीखने वाली इस महान् साधना का महत्त्व समझा जा सकता है। स्मरणीय इतना ही है कि इस मुद्रा के साथ साथ भाव सम्वेदनाओं की अनुभूति अधिकतम गहरी एवं श्रद्धा सिक्त होनी चाहिए।
विवेक
अनंत प्रेम
अनंत प्रज्ञा

BINDU CHAKRA


सभी दिव्यात्माओं को आत्मनमन, आप सब ने मेरी पिछली पोस्ट में चंद्र बिंदु और उसको मूलाधार के शिवलिंग तक पहुचाने के ध्यान के बारे में पढ़ा,बहुत से लोगो ने बिंदु चक्र और उसके प्रवाह के विषय में पूछा,पेश है उसी कड़ी में अगली पोस्ट।

विवेक
चंद्र बिन्दु चक्र सिर के शीर्ष जहा पर पंडित लोग चोटी रखते है वहा स्थित है। बिन्दु चक्र में २३ पंखुडिय़ों वाला कमल होता है। इसका प्रतीक चिह्न चन्द्रमा है, जो वनस्पति की वृद्धि का पोषक है। भगवान कृष्ण ने कहा है : ''मैं मकरंद कोष चंद्रमा होने के कारण सभी वनस्पतियों का पोषण करता हूं" (भगवद्गीता १५/१३)। इसके देवता भगवान शिव हैं, जिनके केशों में सदैव अर्धचन्द्र विद्यमान रहता है। मंत्र है शिवोहम्(शिव हूं मैं)। यह चक्र रंगविहीन और पारदर्शी है।
बिन्दु चक्र स्वास्थ्य के लिए एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है, हमें स्वास्थ्य और मानसिक पुनर्लाभ प्राप्त करने की शक्ति प्रदान करता है। यह चक्र नेत्र दृष्टि को लाभ पहुंचाता है, भावनाओं को शांत करता है और आंतरिक सुव्यवस्था, स्पष्टता और संतुलन को बढ़ाता है। इस चक्र की सहायता से हम भूख और प्यास पर नियंत्रण रखने में सक्षम हो जाते हैं, और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक खाने की आदतों से दूर रहने की योग्यता प्राप्त कर लेते हैं। बिन्दु पर एकाग्रचित्तता से चिन्ता एवं हताशा और अत्याचार की भावना तथा हृदय दमन से भी छुटकारा मिलता है।
बिन्दु चक्र शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, स्फूर्ति और यौवन प्रदान करता है, क्योंकि यह "अमरता का मधुरस" (अमृत) उत्पन्न करता है। यह अमृत रस ललना चक्र में आकर जमा होकर रहता है,और विशुद्ध चक्र में शुद्ध होता है, यदि विशुद्ध चक्र जागृत नहीं है तो ये मणिपुर चक्र में जाके व्यर्थ होने लगता है। जहां यह शरीर द्वारा पूरी तरह से उपयोग में लाए बिना ही जठराग्नि से जल जाता है।
इसी कारण प्राचीन काल में ऋषियों ने इस मूल्यवान अमृतरस को संग्रह करने का उपाय सोचा और ज्ञात हुआ कि इस अमृतरस के प्रवाह को जिह्वा और विशुद्धि चक्र की सहायता से रोका जा सकता है। जिह्वा में सूक्ष्म ऊर्जा केन्द्र होते हैं, इनमें से हरेक का शरीर के अंग या क्षेत्र से संबंध होता है। उज्जाई प्राणायाम और खेचरी मुद्रा योग विधियों में जिह्वा अमृतरस के प्रवाह को मोड़ देती है और इसे विशुद्धि चक्र में जमा कर देती है। एक होम्योपैथिक दवा की तरह सूक्ष्म ऊर्जा माध्यमों द्वारा यह संपूर्ण शरीर में पुन: वितरित कर दी जाती है, जहां इसका आरोग्यकारी प्रभाव दिखाई देने लगते हैं।
खेचरी मुद्रा से ऊर्जा का प्रवाह एक वर्तुल के रूप में होने लगता है। वोही सोम रस मूलाधार तक पहुच के फिर ऊपर उठने लगता है ध्यान में। शेष अगली पोस्ट में।
विवेक
अनंत प्रेम
अनंत प्रज्ञा

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