श्रीअर्जुन कृत श्री भद्रकाली स्तुति
जब महाभारत युद्ध अपनी चरम सिमा पर था। तब पांडवो को चिंतित देख *जगदगुरु परमात्मा श्री कृष्ण* ने सदा की भांति सभी पाण्डवो को श्री भगवती की शरण में जाने का आदेश दिया तब स्वयं श्री कृष्ण धर्मराजयुधिष्ठीर अर्जुन सहित~ *नलखेड़ा श्री बगलामुखी पीठ* नकुल सहदेव *माँ एकविरा जी बड़नगर* और भीमसेन जी *सातरुंडा माँकवलका जी* की साधना में रत हो गए। भगवती की शक्तियो ने अपने सभी साधको को दर्शन दिया और कहा युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व राजराजेश्वरी भद्रकाली के भी आपको दर्शन होंगे। युद्ध भूमि में अर्जुन को जब शत्रुओ की विशाल सेना देख कर भय व्याप्त होने लगा तब श्री कृष्ण ने गीता के माध्यम से ने पराम्बा राज राजेश्वरी की शरण में पूर्ण शरणागति की आज्ञा प्रदान करी ।
योगेश्वर श्री कृष्ण के वचनो से अर्जुन का मन स्थिर हो गया उसने कहा में युद्ध के लिये प्रस्तुत हूँ। हे माधव यदि अब आपकी आज्ञा हो युद्ध का शंखनाद किया जाये। तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा नही गुडाकेश अभी युद्ध के शंखनाद के प्रारम्भ के पूर्व हमारी इष्टदेवी अपने भक्तो की दुर्गती नाश करके पापियो का संहार करने वाली श्री भद्रकाली की शरण में चले उनका स्मरण कर उनका आशीर्वाद ग्रहण करो। तब अर्जुन रथ से उतर कर पवित्र हो दोनों हाथ जोड़कर अपने भृकुटि विलास मात्र से चराचर जगद् को क्रियान्वित करने वाली भगवती की स्तुति करने लगे उनकी रोमावलिया पुलकित हो रही थी। नेत्रो में प्रेमाश्रु छलक रहे थे । और कण्ठ रुंधा जा रहा था ।
~ अर्जुन उवाच ~
नमस्ते सिद्ध सेनानी , आर्ये मन्दर वासिनी। कुमारी काली कपाली कपिलै कृष्ण पिंगले।।
भद्रकाली नमस्तुभ्यं महाकाली नमोस्तुते। चण्डी चण्डे नमस्तुभ्यं तारिणी वर वर्णिनि ।।
कात्यायनि महाभागे कराली विजये जये। शिखि पिच्छ ध्वज धरे नाना भरण भूषिते।।
अटूट शूल प्रहरणे खड्ग खेटक धारिणी। गोपेन्द्रस्यानुजे ज्येष्ठे नन्द गोप कुलोद्भवे।।
महिषासृक् प्रिये नित्ये कौशिकी पीत वासिनी। अट्टहासे कोक मुखे नमस्तेस्तु रणप्रिये।।
उमे शाकम्भरी श्वेते कृष्णे कैटभ नाशिनी । हिरण्याक्षी विरुपाक्षि सुधारात्रि नमोस्तुते।।
वेद श्रुति महापुण्ये ब्रह्मण्ये जातवेदसी। जम्बू कटक चैत्येषु नित्यं सन्निहितालये।।
त्वं ब्रह्म विद्यानां महानिद्रा च देहिनां। स्कंदमातर्भगवती दुर्गे कान्तार वासिनी।।
स्वाहाकार स्वधा चैव कला काष्ठा सरस्वती । सावित्री वेद माता च तथा वेदांत उच्चते।।
स्तुतासि त्वं महादेवी विशुद्धेनान्तरामना । जयो भवतु में नित्यं त्वद्प्रसादात् रणाजीरे।।
कान्तार भय दुर्गेषु भक्तानां चालयेषु च। नित्यं वसति पाताले युद्धे जयसी दानवान ।।
त्वं जम्भिनी मोहिनी च माया ह्रीं श्रीस्ततेव् च।सन्ध्या प्रभावती चैव सावित्री जननी तथा ।।
तुष्टि पुष्टी धृति दीप्ती चन्द्रादित्य विवर्धिनी।भूतिर्भूति मतां सौख्यः विक्ष्यसे सिद्ध चारणे।।
अर्जुन की स्तुति से प्रसन्न होकर *जगदम्बा श्रीमहादुर्गा* आकाश में प्रगट हो गयी और अर्जुन को कहा "
हे पांडुनन्दन वत्स कृष्ण और अर्जुन तुम और कृष्ण साधारण मानव नही हो तुम दोनों ने मेरी ही आज्ञा से इन दुष्टो का विनाश करके पृथ्वी का भार उतारने के लिये ही शरीर धारण किया हे । तुम दोनों नर, नारायण , हो। तुम दोनों ने पूर्व जन्म में भी विशाला क्षेत्र【बद्रीविशाल】 क्षेत्र में मेरा बहूत तप करके मेरी अनन्य भक्ति के द्वारा मुझे पहले ही प्राप्त कर चुके हो। और तुम दोनों ने मेरी आज्ञा से ही भूमि का भार उतारने के लिये ही अवतार लिया हे। तुम्हे अधिक तप की आवश्यकता नही हे। और इस कार्य को पूर्ण कर के तुम दोनों मुझे पुनः प्राप्त कर लोगे पुनः मेरी साधना तप भक्ति तुमको प्राप्त होगी इसमें कोई भी सन्देह नही हे। और मेरी कृपा होने के कारण यह कोरव यौद्धा कौरव सेना और नारायणी सेना आदि तो बहुत ही तुच्छ हे । अगर सभी देवताओ को लेकर देवराजइंद्र भी युद्ध करने आ जाये साक्षात् वो भी तुम दोनों को युद्ध में परास्त नही कर सकता। तुम दोनों बस निमित्त बन जाओ , में स्वयं ही तुम समस्त वीरो के अन्तःकरण में विराजित हो कर इन दुष्ट पापियो का संहार करुँगी। और भगवती भद्रकाली उसी क्षण कृष्णार्जुन को वर विजय् का वर देकर अंतर्ध्यान हो गयी।
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